संकलन-नागेन्द्र प्रसाद रतूड़ी (स्वतंत्र पत्रकार,राज्य मान्यता प्राप्त उत्तराखंड)
ऑर्गेनिक खेती की समस्याएं और उनका समाधान।
बड़ी संख्या में बच्चे, पुरुष, आदमी, औरतें ऑर्गेनिक खेती करना चाहते हैं। ख़ासकर जो शहरी नौकरी में हैं वो। लेकिन यह हसीन ख्वाब सरीखा है। चूंकि मैं विशुद्ध गांव से हूँ और पुरखों के आशीर्वाद से ठीक ठाक खेती है। जिसमें 24 घंटों पानी की सुविधा हेतु बड़े-बड़े बोर करवा रखे हैं। लेकिन फॉर्च्यूनर नहीं खरीद पा रहा। न मेरे आस-पास किसी ने खेती की आय से अब तक ख़रीदी है।
अब आते हैं सब्जियों की खेती पर। तो सबके गांव और शहर में हफ्ते में दो बार सब्ज़ी मंडी लगती है, जिसे बाज़ार लगना भी कहते हैं। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो ताज़ी सब्जियां बहुत कम दाम पर मिलती हैं। दुनियाभर में फैले भारतीय लोग बताते हैं कि हमारे यहां भारत की तरह हरी धनिया और हरी मिर्च यूं ही सब्ज़ी वाला नहीं डालता; दोनों चीज़ें लेने के लिए कम से कम 200 रुपए चुकाने पड़ते हैं। जबकि भारत में हम सबने देखा होगा कि कई जगहों पर सब्ज़ी बेचने वाला तराज़ू भी नहीं रखता। वह छोटे –छोटे ढेर बनाके रखता है और बोलता है “कोई भी ले लो मात्र 10 रुपए 5 रुपए में।” कुछ कृपण लोग मंडी करने देर शाम जाते हैं, जब सब्ज़ी वाले अपनी दुकान समेटकर जा रहे होते हैं और औने-पौने दामों पर किसी भी हालत में हरा माल निकालना चाहते हैं। जब नहीं बिकता तो यूं ही छोड़ देते हैं जिससे आवारा जानवरों और अत्यंत निर्धन लोग के पेट की क्षुधा शांत होती है।
सब्ज़ियों और फलों की खेती के मामले में मेरे नाना बहुत उस्ताद आदमी हैं। उन्होंने रिटायर होने से पहले और बाद में जमके फलों और सब्ज़ियों की खेती की। वो आम के पेड़ो के नीचे हल्दी तो कूल (सिंचाई हेतु नाली) में कंदमूल, खेत की मेड़ों के किनारे गेंदा के फूल लगाते हैं। दूसरे प्रदेशों की फल और सब्जियों को कैसे अपने यहां तैयार करें इस तरह की जानकारियों के वो बेताज़ बादशाह हैं। लेकिन अब शार्क टैंक के अशनीर ग्रोवर के शब्दों में कहें “ कि इसमें धन्धा क्या है, पैसा कितना बनता है, कितनी सेल हुई, कितना पैसा आएगा और कहां से आएगा? ये बताओ।” तो मैं कहूंगा कम से कम गांव में तो कुछ नहीं बनना। क्योंकि मेरे मामा लोग आसपास के शहर में जब सब्जियां बेचने जाते थे तो माटी के मोल बिकती थी। मैं तो हैरान था कि सब्ज़ी को मंडी में बिचौलिआ लोग तौलते नहीं है। बिना तौले ही बोली लगती है। कई बार तो ऐसा हुआ कि एक मन लौकी 5 या 10 रुपए की ही बिकी। और मंडी में इतनी सब्ज़ी आती है कि आपकी लौंकी वहां एक्सक्लूसिव नहीं होती। यही हाल टमाटर, बैगन, कद्दू आदि के साथ होता है। कभी- कभी ही ऐसा होता कि आपकी सब्ज़ी को उचित दाम मिलते हैं। और आपने सब्ज़ी बो रखी है तो गांव में आपके जानने वाले पूरे अधिकार से पूरे सीज़न निशुल्क खाने की मंशा अलग से रखते हैं। आसपास के नाते – रिश्तेदारों को भी उपलब्ध करानी पड़ेगी समय –समय पर। नहीं तो होगा “कि देखो इतनी शकरकंदी हुईं झबरू के यहां लेकिन हमें एक नहीं मिली।”
हमने भी एलोवेरा कि खेती किया था, किसी की सलाह पर, लेकिन उसमें उतना चारा हो गया कि निराई में ही हालत ख़राब हो गई। साल दो साल खेत घिरा रहा। अंत में बिना काटे ही ट्रैक्टर चलवा के निजात पाई। आलू हर दो साल में एकबार सड़कों पर फेंके जाते हैं क्योंकि कोल्ड स्टोरेज़ में रखने की फीस आलूओं की कीमत से ज्यादा हो जाती है। दिल्ली में सरकार के लोग कहते हैं कि हम अपने किसानों की सब्ज़ी बर्बाद नहीं होने देंगे। उनको शीतगृह बनाकर देंगे ताकि उनकी सब्ज़ी सुरक्षित रहे। एक ऐसी व्यवस्था बनाएंगे कि किसान अपनी सब्ज़ियां निर्यात कर सके।
किसान बंदरगाह तक तो अपनी सब्जी पता नहीं कब ले जाएगा अभी तो दूसरे शहर और रेलवे स्टेशन तक माल पहुंचाने में ही किसान बिक जाता है। दूसरी ओर सब्ज़ी की खेती में मेहनत बहुत है। आवारा जानवरों, कीट – पतंगों, रोगों, प्रतिकूल मौसम का साया मड़राता रहता है सदैव। तो गांव में किसान ऑर्गेनिक खेती ही कर रहे हैं। एक तो रासायनिक खाद महंगी होती है दूसरा किसान अपने जानवरों का गोबर ही बतौर खाद इस्तेमाल करता है। आप ऑर्गेनिक खेती कर भी लोगे लेकिन बेचोगे कहाँ। आसपास तो कमसे कम ऐसे लोग नहीं मिलेंगे जिनकी क्रयशक्ति इतनी होगी कि वह ऑर्गेनिक के लिए ज्यादा दाम चुकाने को राज़ी हो जाएं। ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर बेच तो लोगो लेकिन लॉजिस्टिक्स का खर्चा मार डालेगा। निर्यात का जुगाड़ बना भी लिया तो बंदरगाह तक पहुंचने तक आपका माल ख़राब होना शुरू हो जाएगा। बंदरगाह और जहां हवाई कार्गो की व्यवस्था है वहां पहले से ही खेती कर रहे एजेंट्स से प्रतियोगिता अलग से करनी होगी। फिर इतने झंझट से अच्छा तो गन्ना, सरसों, गेहूं और परंपरागत खेती करना ही जान पड़ता है, जिससे न आदमी मरता न अच्छे से जीता है। बस इधर से आया उधर लग गया। किसी साल फायदा तो बाकी साल नुकसान हो गया।
हालांकि तमाम अख़बारों की वेबसाइट्स पर ख़बरे होती हैं कि “ फलां किसान ने बैगन की खेती से कमाए साल में 5 करोड़।” हालांकि ऐसा नहीं है कि खेती से आमदनी नहीं है; आमदनी तो है लेकिन संतोषजनक नहीं है। जो लोग पैसे बचा भी लेते हैं साल में, वह कई समझौते करते हैं क्वालिटी लाइफ से।
इस क्षेत्र में अभी बहुत काम की ज़रूरत है। केवल सरकारी प्रणाली से सब ठीक होना बहुत मुश्किल है। प्राइवेट सेक्टर कभी सहयोग चाहिये। अधिकांश किसानों की इतनी हैसियत नहीं होती कि वह रैफ्रीजेटेड वैन ख़रीद पाएं जिसमें सब्ज़ियां/फल रखकर दूसरे प्रदेश में बेच सकें। कमसे कम इस बड़े काम में तो सरकार या निजी क्षेत्र की मदद तो चाहिए ही होगी। दूसरा सरकार इतने काम करती है तो एक काम यह भी करे कि सब्जियों के लिए भी मूल्य निर्धारित कर दे जैसे क्रूड आयल का कर दिया है। और लागत और उत्पादन के हिसाब से कीमतें कम ज्यादा होती रहें।
डिस्ट्रीब्यूशन में सुधार बिना सरकारी मदद और निजी क्षेत्र के सहयोग के संभव नहीं है। इससे कीमत बढ़ने की बजाय तार्किक होंगी। प्रत्येक ज़िलें में एक बड़ा शीत केंद्र बनाए जहां सरकार स्वयं सब्जियां खरीदे और उनको देश भर के शीत केंद्रों के नेटवर्क से रियल टाइम मांग आधारित डाटा के आधार पर इधर से उधर करवाए। यह इतना बड़ा काम है कि बिना मिलजुलकर संभव नहीं है।
एक सिस्टम तो बनाना ही पड़ेगा, जो कि अभी है ही नहीं। अगर खेती मुनाफे का धंधा बनेगी तो शहरी संसाधनों पर दिनोंदिन बढ़ता बोझ कम होगा। सरकार, और निजी क्षेत्र को भी आय होगी। किसानों की आय भी सच में दोगुनी होगी।
कृषि विभाग के अधिकारियों को बोला जाए कि आप दफ्तर की बजाय किसानों के खेत पर जाकर सराकरी स्कीम का क्रियान्वयन करो। डेयरी, पॉल्ट्री, बकरी, मछली, शहद और खेती से जुड़े उद्योगों की जानकारी वहीं खेत पर जाकर दो और सुनिश्चित करो कुछ किसान ज़रूर लाभ लें बिना रिश्वत के। और उनका माल सही समय पर सही जगह पहुंच जाए।
जब समंदर वाली मछली दिल्ली और चंडीगड़ में बिकने के लिए आ सकती है तो बनारस से लौकी और गोभी भी जैसलमेर पहुंच सकती है।
तो दिल रखने को ग़ालिब ख्याल अच्छा है। नहीं तो आपके पास फंड्स अच्छे हैं तो ऑर्गेनिक खेती ज़रूर करो। सेहत भी अच्छी रहती है इससे खेती करने का नशा भी पूरा होता है।
हाँ, इतना ज़रूर है कि ऑर्गेनिक खेती के लिए फंडिंग तो कोई नहीं करेगा सिवाय सरकारी बैंकों के। इसलिए मैं भी फिलहाल के लिए तो ऑर्गेनिक खेती करने वाले विचार को त्याग रहा हूँ और शहर केन्द्रित नौकरी और धंधे में बना रहना चाहता हूँ।
(साभार- iam_sandeepsharma की फेसबुक वॉल से)